नई दिल्ली : पूर्व न्यायाधीशों के एक समूह ने समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के मुद्दे पर एक बयान जारी किया है। बयान में कहा गया है, “हम सम्मानपूर्वक समाज के जागरूक सदस्यों से आग्रह करते हैं, जिनमें वे लोग भी शामिल हैं जो सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह के मुद्दे को उठा रहे हैं, वे भारतीय समाज और संस्कृति के सर्वोत्तम हित में ऐसा करने से परहेज करें।”
‘भारतीय समाज पर थोपी जा रही पश्चिमी संस्कृति‘
बयान में कहा गया है, “इस मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय विचार कर रहा है और हाल के दिनों में इसे संविधान पीठ के पास भेजे जाने के बाद इसमें तेजी आई है। क्षेत्रीय और धार्मिक आधार पर समाज के विभिन्न तबकों से आने वाले देश के लोगों को इस पश्चिमी दृष्टिकोण से गहरा धक्का लगा है। इसे परिवार व्यवस्था (फैमिली सिस्टम) को कमजोर करने के लिए भारतीय समाज और संस्कृति पर थोपा जा रहा है। कई न्यायविदों, विचारकों और बुद्धिजीवियों ने परिवार, जो समाज की मूल इकाई है, पर इसके नतीजों पर अपनी गंभीर चिंता व्यक्त की है।”
‘भारत में विवाद केवल दो व्यक्तियों के बीच नहीं‘
इसमें आगे कहा गया है, “भारत में विवाह न केवल दो व्यक्तियों के बीच बल्कि दो परिवारों के बीच एक सामाजिक-धार्मिक संस्कारात्मक संघ है। यह अनादि काल से स्पष्ट है कि विवाह का उद्देश्य केवल भागीदारों की शारीरिक नजदीकियां नहीं है, बल्कि यह इससे भी बहुत आगे जाता है। यह संतानोत्पत्ति के माध्यम से समाज के विकास के लिए अपरिहार्य है।”
‘अदालत को कमजोर करने की कोशिश का हो विरोध‘
बयान में कहा गया है, “दुर्भाग्य से विवाह के सभ्यतागत महत्व के बारे में कोई ज्ञान और सम्मान न रखने वाले कुछ समूहों ने समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है। एक महान और समय की कसौटी पर खरी उतरी संस्था को कमजोर करने के किसी भी प्रयास का समाज द्वारा मुखर विरोध किया जाना चाहिए।”
‘सदियों तक होते रहे भारत की सांस्कृतिक सभ्यता पर हमले‘
“भारतीय सांस्कृति सभ्यता पर सदियों से लगातार हमले होते रहे हैं, लेकिन तमाम बाधाओं के बावजूद वह बची रही। अब स्वतंत्र भारत में यह अपनी सांस्कृतिक जड़ों पर पश्चिमी विचारों, दर्शनों और प्रथाओं के आरोपण का सामना कर रही है, जो इस राष्ट्र के लिए बिल्कुल भी व्यवहार्य नहीं है।”
‘राइट टू चॉइस के नाम पर पश्चिमी सभ्यता को आयात करने की कोशिश‘
बयान में आगे कहा गया है, “पश्चिम जिन गंभीर समस्याओं का सामना कर रहा है, उन्हें भारत में कुछ निहित समूहों द्वारा पसंद के अधिकार (राइट टू चॉइस) के नाम पर एक संस्था के रूप में न्यायपालिका के दुरुपयोग के जरिए आयात करने की कोशिश की जा रही है।”