नई दिल्ली : समलैंगिकता और समलैंगिक विवाह इस्लाम में हराम है. इस्लाम में सिर्फ महिला-पुरुष के बीच ही संबंध वैध हैं. भारत में शादी धर्म से भी जुड़ा है और इसलिए मामले में धार्मिक पहलुओं पर भी गौर किया जाना चाहिए. यह बातें तेलंगाना मरकजी शिया उलेमा काउंसिल ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में कही है. काउंसिल ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज करने की मांग की गई है. उलेमा काउंसिल के अलावा अन्य मुस्लिम संगठन भी समलैंगिक विवाह की वैधता के खिलाफ हैं.
उलेमा काउंसिल का कहना है कि इस सच्चाई को ध्यान में रखते हुए कि भारतीय समाज में शादियों की जड़ें धर्म से जुड़ी हैं, समलैंगिक विवाह के कानूनी वैधता के सवालों पर धार्मिक प्रतिबंधों को भी देखा जाना चाहिए. काउंसिल ने शोध रिपोर्ट का भी हवाला दिया और कहा कि पता चलता है कि विषमलैंगिक माता-पिता द्वारा परवरीश किए गए बच्चों की तुलना में समलैंगिक माता-पिता द्वारा परवरीश किए गए बच्चे कई मायनों में पीछे हैं.
समलैंगिक विवाहों का कंसेप्ट पश्चिमी
याचिका में डॉक्टर मार्क रेगनरस द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘How Different Are the Adult Children of Parents Who Have Same-Sex Relationships?’ का हवाला दिया गया है. यह रिपोर्ट 2012 में सोशल साइंस रिसर्च में न्यू फैमिली स्ट्रक्चर्स स्टडी द्वारा प्रकाकिशत की गई थी. उलेमा काउंसिल ने अपनी याचिका में कहा है कि समलैंगिक विवाहों का कंसेप्ट पश्चिमी है भारत के सामाजिक ताने-बाने के लिए किसी भी तरह से उपयुक्त नहीं है.
इस्लाम सहित अन्य धर्म भी समलैंगिकता के विरोध में
याचिका में कहा गया है कि पश्चिम या वैश्विक स्तर पर कानूनों में धार्मिक पहलुओं पर गौर नहीं किया जाता और धर्म काफी हद तक कानून का स्त्रोत नहीं रह गया है. इसके इतर वैश्विक स्तर पर अगर देखें तो धर्म लोगों के जीवन में भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं है. उलेमा काउंसिल ने कहा कि भारत में सामाजिक मानदंडों और पारिवारिक संबंधों के साथ-साथ व्यक्तिगत कानूनों को आकार देने में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका है. सिर्फ इस्लाम ही नहीं, बल्कि भारत में प्रचलित मुख्यधारा के धर्मों में भी यह स्वीकार्य नहीं है और इसका विरोध करते हैं.